मुकी अंगडी बालपणाची , रंगीत वसने तारुण्याची
जीर्ण शाल मग उरे शेवटी , लेणे वार्धक्याचे !
या वस्त्राते विणतो कोण ? एक सारखी नसती दोन
कुणा न दिसले त्रिखंडात त्या, हात विणकर्याचे !
ग दि मा
अजब
जुलाहा चादर बिनी
सुत करम कि तानी
सुरती निरति कि भारन दिनी
अब सबके मन मानी
चादर हो गयी बहुत पुरानी
अब तो सोच समझ अभिमानी
कबीर
सुत करम कि तानी
सुरती निरति कि भारन दिनी
अब सबके मन मानी
चादर हो गयी बहुत पुरानी
अब तो सोच समझ अभिमानी
कबीर
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